९. शरीर-श्रम
रस्किन का ‘अंटू दिस लास्ट’ हो
या लेखन हो टालस्टाय का
शरीर-श्रम पर सबका ही आग्रह है
और गीता भी आखिर यही तो कहती है –
यज्ञ किए बिना भोजन
चुराया हुआ खाना है !
त्तात्पर्य यहाँ नि:संदेह
परिश्रम करके ही रोटी कमाना है !
बाइबिल ठीक ही कहती है
आदमी को मिला है अभिशाप
भोजन के लिए उसे पसीना बहाना है !
कोई करोडपति यदि काम न करे
और पडा रहे बिस्तर पर,
आराम करते करते
आजिज़ तो आ ही जाएगा
कुछ नहीं तो पचाने के लिए खाना,
जिम जाएगा !
तो क्यों न हम सभी
श्रमिकों के साथ
उत्पादक श्रम के भागीदार हों
क्यों न ‘श्रम’ के अनुसार ही
पूंजीपतियों के भी अधिकार हों !
संघर्ष की स्थिति में ताकि
समाधान इससे थोड़ा आसान हो !
शरीर श्रम अभिशाप नहीं
आशीर्वाद है उनको
जो करते हैं उपासना सत्य की
कृषि-कर्म करते हुए, या,
कातते और बुनते हुए या
लोहारी या बढईगीरी करते हुए
करते हैं जो श्रम-श्रेष्ठ
कैसे कोई बोल सकता है
शरीर श्रम को नेष्ट !
हर इंसान को अपना
सफाई बरदार खुद ही बनना है
ठिकाने अपनी गंदगी को खुद ही लगाना है !
छोटे हों या बड़े
समान रूप से सभी करते हैं विष्ठा
तब क्यों सफाई करने को उसकी
खुद नहीं दिखाते निष्ठा
केवल किसी वर्ग विशेष को
सौंप देना सारा का सारा
काम सफाई का
न्याय का तो हरगिज़
नहीं हो सकता है हिस्सा !
सफाई के लिए श्रम
न नीच है न क्षुद्र
हीन तो वह दृष्टि है
जो देखती है इसे कमतर .
हम सब अपने अपने और एक-दूसरे के
सफाई कर्मी हों परस्पर
तो दूरियाँ मिटें
आदमी और आदमी के बीच
भावनाएं असमानता की
कुछ तो मिटें !!