८. अस्पृश्यता
अस्वाद की तरह
यद्यपि यह सम्मिलित नहीं है
परम्परागत व्रतों में
पर अस्पृश्यता निवारण
आज समय की मांग है
समय की ज़रुरत है !
धर्म की दुहाई देकर
अकारण ही हम हिन्दुओं ने
सफाई में जुटे कुछ वर्गों को
अलग थलग कर दिया है
और शुरू कर दिया है
हिकारत से देखना उन्हें.
छूना तक पसंद नहीं किया
स्पर्श यदि हो जाए उनका
तो स्थान और माला जपने का
विधान किया !
बड़ी अजीब बात है
कितने ही साफ़-सुथरे
पढ़े-लिखे क्यों न हों
फिर भी लोग इस वर्ग को
अस्पृश्य रहते हैं
और सुजात जो अपने को कहते हैं
वे उनकी छाया से भी
परहेज़ करते हैं !
आग तो एक ही है
हम सब चिंगारियां हैं उसकी
फिर क्यों कोई जन्म से अस्पृश्य हो,
कोई अपने कुकर्मों के बावजूद क्षम्य हो…
यह न तो बुद्धि सम्मत है
न विवेकपूर्ण.
धर्म के नाम पर
निपट अधर्म है यह
सारे समाज के लिए महामारी है
जितनी ही शीघ्रता से
छुटकारा मिले इस विकृति से
सबके लिए उतना ही लाभकारी है !
अस्पृश्यता कलंक है
उसे जड़ से मिटाना परम धर्म है
परवाह नहीं करना है
कोई क्या कहता है !
आखिर सभी तो इंसान हैं
सभी को इंसान की तरह देखना है
अपनी कमियों और अच्छाइयों के साथ
सभी प्यार, दुलार के
उतने ही हकदार हैं
जितने कि होते सहोदर हैं !
अस्पृश्यता निवारण
प्रेम की अभिव्यक्ति है
सेवा का रूप है
हमें तो व्यक्ति और व्यक्ति के बीच
मानव निर्मित व्यवधान को पाटना है
नैसर्गिक प्रेम बांटना है !
तथाकथित कोई भी व्याख्या
अस्पृश्यता की –
न धार्मिक होती है और न मान्य है
यह तो अमानवी, अमान्य है
समाज में सभी बुराइयों की खान है !
इस बुराई पर विजय पाना
हमारा लक्ष्य हो
इससे पहले कि यशः हमें बर्बाद करे
यह भस्म हो !