७. अभय
दान दामादि
कुछ संपदाएं हैं जिन्हें
कृष्ण ने गीता में दिया है मान
और उनमें सर्वप्रथम
मिला है अभय को स्थान !
यों तो सभी
संपदाएं हैं देवी, किन्तु
यह अभय ही तो है
जो अपरिहार्य है
अन्य गुणों की रक्षा के लिए
सर्वदा तैनात है !
सत्य और प्रेम की तलाश में
जो भी जब निकला है
निडर होकर ही निकला है
संकरे और कठिन इस मार्ग पर
भय रहित होना
पहली शर्त है इस खोज की
सत्य के प्रयोग की !
यह पथ नहीं है कायरों के लिए
चल पाते हैं इस पर
वीर पुरुष ही केवल
और आगे बढ़ते हैं वे,
तलवार नहीं,
अभय का हथियार लेकर !
वाह्य डरों से मुक्त होना
रोग के, चोट के
निंदा और मृत्यु के –
जो सारे डर होते हैं हमारे मन में
उनसे पार पाना ही
भय से रहित हो जाना है |
सत्य के मार्ग पर
तत्पर रहता है मनुज
बड़े से बड़े बलिदान हेतु
बिना उफ़ किए, बेझिझक |
बाहरी डरों का अतिक्रमण
ज़रूरी है बेशक, पर अपनी
आतंरिक और पाशविक वृत्तियों पर
विजय पाना भी,
कठिन होते हुए भी अनिवार्य है !
जाने-अनजाने, समय-असमय
उभर आती हैं ये वृत्तियाँ
बिन बताए कभी क्रोध में
कभी काम, तो कभी लोभ, मोह में !
सभी का केंद्र हमारी ही काया है
शरीर के आस-पास ही
मंडराती हैं ये वृत्तियाँ !
आसक्ति यदि हम छोड़ दें देह की
धन की और परिवार की
भोगें ऐश्वर्य सारे
बिना किसी ममता और लगाव के –
“तेन त्यक्तेन भुन्म्जीथा:”
मार्ग यदि अपनाएं उपनिषद् का –
क्यों सताए भय हमें फिर !
अभय-वन में सदा हम विचरण करें
खोज लावें सत्य का पथ !
जिसपर चलें सब !