६. अस्वाद
परम्परागत रूप से अस्वाद को
एक स्वतन्त्र मूल्य का स्थान
हासिल नहीं है
ब्रह्मचर्य के अनुसरण में, किन्तु
यह सहायक ही नहीं
अनिवार्य भी है,
यद्यपि साधना इसे
सरल नहीं है !
दुनिया के अधिकतम लोग
सिर्फ भोजन के लिए जीते हैं
ग्रहण करते हैं उसे वे
बिन विचारे
विषयासक्ति उन्हें सोचने ही नहीं देती
खाद्य क्या, अखाद्य क्या
और खाने की मात्रा क्या !
यह इतना ही गलत जैसे
स्वाद से वशीभूत
हम स्वादिष्ट दवा ले लें कोई
मात्रा से कहीं अधिक !
मात्राएँ नियत हैं
दवा की भी और भोजन की भी
देह के अनुपात में
स्वाद-अस्वाद से ऊपर उठकर
संतुलित भोजन ही दरकार है |
पर यह विडम्बना कैसी
की स्वाद के मारे हम
स्वाद ही भूलते जा रहे हैं भोजन का
नमक ज्यादह या नमक कम !
स्वाद के नापने का
बस यही बन गया है एक मात्र मापदंड
ज़रुरत के अनुसार
सही भोजन सही मात्रा
दुरुस्त रखती है देह को
जो आवश्यक उपकरण है
सर्व सेवा का
कर्मशीलता,कर्म-योग का
मर्म भी यही है अस्वाद का |