५. अपरिग्रह

ईश्वर हमें रोज़ की रोटी
प्रदान करता है
और यही वह आस्था है जिस पर
अपरिग्रह का
समूचा भवन टिका है !
सत्य पथ-गामी
कल के लिए चिंतित नहीं रहता
सुविधा संग्रह का
उसके लिए कोई अर्थ नहीं होता.
आज की आवश्यकता से अधिक
अर्जित करना
न सिर्फ अनावश्यक परिग्रह है
चोरी का ही एक प्रकार है, विद्रूप है
स्तेय का ही एक रूप है !
कितनी ही वस्तुएं
हम करते हैं इकट्ठी
गोदामों में भरते हैं इफरात से
और भूल जाते हैं
न दान न भोग करते हैं उनका.
छोड़ देते हैं उन्हें
नष्ट हो जाने के लिए…
फिजूल और फालतू ऐसे संग्रह
निर्धनों की छीनते हैं रोटियाँ
मोहताज बनाते हैं उन्हें
दाने दाने के लिए !
ज़रूरतमंदों की ज़रुरत
धरी की धरी रह जाती है
कंगाल
और कंगाल होता चला जाता है
और रईसों की रईसी
बेलगाम बढ़ती चली जाती है.
बेशक, यह तो असंभव है
कि आदमी बन जाए चिड़िया
न फ़िक्र हो रोटी की उसे
न कपडे और मकान की
पर विवेक उसका
इतना तो काम कर ही सकता है
कि एक हद के बाद
समझे वह ज़रूरत
संग्रह पर विराम की
और खुद ही तय करे –
कितनी आवश्यकता है उसे
और कितनी चीजें हैं उसके काम की !
निकम्मी और बेकार चीजों का मोह
यदि छोड़ देता है आदमी
अपनी ज़रूरतों पर
लगाता है थोड़ी लगाम
तो सच मानिए
पाट सकता है वह खाई
आदमी और आदमी के बीच की !
समानता लाने की बस,
यही एक सूरत है.
सिर्फ वस्तुओं में ही नहीं
संकल्प और ज्ञान में भी तो
ज़रूरी है अपरिग्रह –
वहां भी यह अपरिहार्य है !
अनावश्यक सूचनाओं का
भण्डार बना लेना अपने मस्तिष्क को
और ऐसे ज्ञान को जो पथभ्रष्ट करे
सहेज कर रखना
कूट-व्यापार करना ज्ञान का
अज्ञान का ही एक प्रकार है
अहंकार, जड़ता और पाप का
द्वार है !
वास्तविक ज्ञान तो वह है जो
हमें सात्विक कर्म
और सर्व-सेवा की ओर प्रेरित करे
प्रभु की तरफ
थोड़ा और उन्मुख करे !

Back to Main Ekadash Vrat Index Page