४. अस्तेय
व्यक्ति चोरी करे
और यह दावा भी करे कि
उसको सत्य का ज्ञान है
चोरी करे और बोले
ह्रदय में प्रेम का वास हैं
असंभव सी बात है !
जहां प्रेम और सत्य है
वहां सती के लिए
कोई स्थान नहीं है
जिस तरह अस्वाद और ब्रह्मचर्य
निहित है सत्य में
सम्मिलित है वह अस्तेय में भी |
भागीदार बन ही जाता है व्यक्ति
फिर भी कभी न कभी
जाने अनजाने चोरी का.
बिना पूछे
दूसरों की वास्तु पार कर देना
नि:संदेह चोरी है …
पर चोरी तो हम प्राय:
स्वयं अपने से भी करते हैं
अपने ही बच्चों से चुरा कर खाते हैं
अँधेरे में रखते हैं परिजनों को !
कितनी ही चीजें हैं
ज़रूरत नहीं जिनकी हमें
ललचाई आँखों से फिर भी
उन्हें देखते हैं
प्राप्त करने की उक्तियाँ लगाते हैं
खरीदते हैं, माँगते हैं
और मौक़ा मिलते ही
चुराने से भी उन्हें बाज़ नहीं आते !
आवश्यक-अनावश्यक
आवश्यकताएं तो अनंत हैं
जितनी भी बढ़ाओ, बढ़ जाती हैं
पर घट भी सकती हैं
घटाओ यदि यत्न से !
आवश्यकताओं पर लगाएं लगाम हम
उचित और अनुचित में तमीज़ करें
अचौर्य के लिए
ज़रूरी है जितना
केवल उतना ही अर्जित करें !
अधिक अर्जन
और दूसरे के हक़ को छीनना
यह भी तो चोरी है भाई !
इतना सारा दुःख
इसलिए भी बढ़ा है दुनिया में
कि दूसरों की अनदेखी कर
बढाई हैं ज़रूरते अपनी
और चुरा की हैं ज़रूरतमंदों की
चीजें ज़रूरी !
स्थूल रूप से तो
अक्सर हम चोरी करते ही हैं
पर चोरी का आकार
एक सूक्ष्म भी है
वह मन से भी होती है
और चोरी की यह किस्म
कहीं अधिक खातरनाक होती है
दूषित करती है यह
मनुष्य की आत्मा को
पतन का मार्ग बनती है !
औरों की संपत्ति पर लालची निगाहें
कुशंकाएँ भविष्य की
गैर-ज़रूरी चीजों को
प्राप्त करने की कामनाएं –
चोरी के ही रूप हैं सब !