३. ब्रह्मचर्य

दृष्टि है नि:स्वार्थ
सबसे प्रेम करने की, अहिंसा की
वासना से मुक्त
निष्कपट कल्याण सबका साधने की
और यह संभव तभी
व्रत ब्रह्मचर्य धारण करें हम !
व्यक्ति जो हैं दास
अपनी वासनाओं के
संतुष्टि में उनकी लगे रहते
और अपने प्रेम को,
वासना की हो जहां संतुष्टि
उस पात्र में
उड़ेल देते हैं
प्रेम उनका इस तरह
व्यक्ति और परिवार को
सीमित परधि में कैद रखता है
वृत्ति उनकी स्वार्थ से सीमित
”मैं” और “मेरे” दायरे में
घूमती रहती
दूसरों के लिए मन में
भाव हित, कल्याण, का
होता नहीं जाग्रत !
विवाह की इस विडम्बना से
बचना चाहता है जो पुरुष
उसको ज़रूरी है कि अपने प्रेम को
वासना से मुक्त कर दे वह
दंश तोड़े स्वार्थ का
और सबको प्यार से
अपनी परिध में सम्मिलित कर
सर्व सेवा में लगाए मन !
वासना से रहित निश्छल प्रेम
परिवार को भी मुग्ध करता है
क्योंकि यह नि:स्वार्थ होता है
परस्पर द्वंद्व का, संघर्ष का
अवसर नहीं बनता !
देह पर रखना नियंत्रण
मांग होती ब्रह्मचारी की-
किन्तु यदि विकृत विचारों से
भरा हो मन
लाभ इसका मिल नहीं पाता.
अनुसरण तो देह आखिर
करेगी मन ही का – निश्चित है !
है ज़रूरी इसलिए
भटक जाए यदि कभी मन
पाप के पथ पर
साथ हम देवें नहीं उसका
असहयोग हम उससे करें
मन मानी न करने दें उसे !
वासनाएं पाशविक सारी
नियंत्रित रहें-
है इतना ही नहीं
कहीं अधिक अर्थ से संपन्न होता
व्रत ब्रह्मचर्य
यह तो सभी ज्ञानेन्द्रियों का
नियंत्रण है, इसमे
स्वाद, स्पर्श, श्रवण, घ्राण, दृष्टि
संयमित रहती हैं सभी
बिना ऐसे संयमन समग्र के
हो नहीं सकतीं निरोधित इन्द्रियाँ
भले ही स्वांग हम करते रहें !

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