११. स्वदेशी
नियमों का नियम
स्वदेशी युग धर्म है
पालन इसका हो स्वभावत: |
पर कर बैठते हैं प्राय:
इसकी अवज्ञा और अवहेलना
उपेक्षित रह जाता है नियम !
आत्मा तो आत्मिक है
भ्रमवश परन्तु
हम अनात्मिक भौतिक जगत को ही
मान बैठे हैं घर अपना
लेकिन यह तो है केवल एक सपना
उद्देश्य तो हमारा है
अपने स्वाभाविक आत्मिक
स्वरूप को पहचानना !
हम सब अंश हैं एक ही आत्मा के
अत: सर्व-सेवा ही बनता है
माध्यम आत्मानुभूति का !
क्षमताएं सीमित हैं हमारी
कर नहीं पाते एक साथ
हम सेवा सबकी
जो पड़ोसी है हमारा
वही हो पाता है सेवा का हमारी
प्रथम अधिकारी !
पड़ोसी की अवहेलना
और जो दूर बसे हैं
सेवा का उनकी ढोंग रचना
स्वदेशी भावना के
विपरीत है सर्वथा |
स्वधर्म का पालन करते हुए
मर जाना है श्रेयस्कर
किन्तु पर-धर्म निभाना
खतरनाक भी है, गलत है !
गीता का भी यही तो कथन है !
पड़ोसी हमारा सेवाका
प्रथम अधिकारी है, बेशक
पर नाजायज़ तरीके से
नाजायज लाभ देना उसे
सेवा और स्वदेशी –
दोनों का ही है भद्दा मज़ाक !
स्वदेशी व्रत तो
ज़रिया है अंतत: सभी के हित का
और इसके लिए व्रतधारी
त्याग भी कर देता है
अपने पारिवारिक सुख का !
स्वदेशी तो नियम है नियमों का
खादी व्रत पालन उससे ही निगमित
एक उपमेय, उपनियम है |
भूखे और दरिद्र हैं
भारत के करोड़ों लोग
रहने को निकेतन नहीं, निर्वस्त्र हैं:
उबारने का कंगाली से उन्हें
कौन सा शास्त्र है ?
बस एक ही जवाब है
–खादी अपनाएं हम.
आसान और सर्व-सुलभ बस
यही ज़रिया है
घर घर थोड़ा थोड़ा सूत काता जाए
गरीबी से लड़ने का
चरखे को हथियार बनाया जाए !
गरीबी वह बुरी शै है
जो चोर बनाती है इंसान को
शराब और अफीम के धंधे चलाती है
भूलने को गम नशा करते हैं गरीब
बीमारी और मौत के रहते हैं करीब !
खादी अपनाएं हम
चरखे को हथियार बनाया जाए
यही सर्व-सुलभ साधन है
और इसी में स्वदेशी व्रत का पालन है !
खादी मुलायम नहीं
मोटी, खरखरी है
पर आर्थिक स्वावलंबन के लिए
चीज़ यह खरी है
फैशन की वस्तु नहीं, खादी उपयोगी है
प्रेम और करुणा में पगी गरीब की रोटी है
स्वदेशी व्रत का यह सहज परिणाम है
खादी गरीबी का समाधान है !