१०. सहिष्णुता
जब भी करते हैं हम
धार्मिक-सहिष्णुता की बात
दूसरे धर्मों के प्रति रहता है
उसमें एक हीनता का भाव
और अपने धर्म के प्रति
शायद श्रेष्ठता का दंभ !
बहुत अच्छा शब्द तो नहीं है
लेकिन हर पंथ के लिए
यदि सम्मान का भाव रहे मन में
तो क्यों न
सहिष्णुता ही बन जाए हमारा
धर्म और कर्तव्य !
सत्य के खोजी
और प्रेम परोसके वाले
जानते हैं भलीभांति –
सभी धर्म अपूर्ण हैं
लेकिन सभी का लक्ष्य तो एक ही है
नज़दीक परमात्मा तक पहुँचना
या कहें,
परम सत्य को साक्षात्कार करना |
ऐसे में धर्म और धर्म के बीच
फूट डालने का प्रयत्न
हम क्यों करें
या कि तुलना ही परस्पर क्यों करें ?
क्यों न सभी धर्मों में वर्णित
सद्गुणों को अपनाएं
अपने ही धर्म में रहकर
अन्य सभी के प्रति सम्मान दर्शाएं |
जिस तरह एक ही वृक्ष के
एक ही तने से
प्रस्फुटित हुई हैं अनेक शाखाएं
हम भी तो एक ही परम की
अभिव्यक्तियाँ ही तो हैं !
इसी परम की खोज में लगे हैं
अपनी अपनी तरह से सभी धर्म |
यही तो धर्म-धारण का है मर्म |
सभी की दृष्टि और वाणी अलग है
इसी से मतान्तर है
धार्मिक सहिष्णुता ही ऐसे में
वह आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि है
ले जाती है हमें जो निकट
परमानुभूती के, आस्वादन
अवर्णनीय कराती है|
सभी धर्मों में समानता का सिद्धांत
धर्म की आधारभूत एकता पर
नि:संदेह देता है बल
पर दो धर्मों के अंतर
मिटाने में रहता है असफल
जाग्रत करता है वह हमारे विवेक को
कि पहचान सकें
धर्म के धार्मिक तत्वों को
त्याग दें रूढ़ियों आडम्बरों को |
सहिष्णुता का
यही तो है रास्ता !!