१. सत्य
सर्व प्रथम मैं सत्य की ही
बात करता हूँ
कि जिसके बरतने के लिए
हम सबसे ही
अपेक्षा की जाती है |
सत्य है उत्पन्न ‘सत’ से
जिसके अर्थ में भाव है होने का
और जो है, सत्य ही है
अतिरिक्त इसके कुछ नहीं.
ईश्वर सत्य है, बेशक
मगर यदि हम कहें –
‘सत्य ईश्वर है’ – तो सत्य के
शायद अधिक नज़दीक हों हम !
हमारे बोलने की पड़ गईं हैं
आदतें कुछ इस तरह की
कि सर्वोच्च को ‘राजा’ कहा हमने
और राजाओं का राजा
बन गया ईश्वर !
किन्तु यदि हम गौर से देखें
मुनासिब नाम ईश्वर का
सत्य, और सत्य है केवल !
सत्य ईश्वर है
उसे चित भी कहा है
क्योंकि इसके साथ है सत-ज्ञान भी
और जैसे सत बिना
चित नहीं है संभव
बिना चित, आनंद की भी
कल्पना हम नहीं कर सकते.
सत, चित और आनंद – तीनों ही
निहित सर्वोच्च सत्ता में
ईश्वर में संमाए हैं ..
सत्य के प्रति आस्था
अस्तित्व का आधार हो
क्रिया कलापों में हमारे
केंद्र में हो सत्य
सत्य ही हो श्वास जीवन का !
सत्य पालन के लिए
करनी पड़े कोशिश नहीं
और आत्मिक बिंदु की उस
प्रगति तक हम पहुंचें
कि सत्य का अनुसरण ही
स्वभाव बन जाए हमारा !
सत्य पालन के लिए
सच बोलना बेहद ज़रूरी
किन्तु सब संभावनाएं सत्य की
सच बोलने में खप नहीं जातीं
मन वचन और कर्म से जब
सत्य का पालन करें
तभी उसकी पूर्णता है |
सीमित बुद्धि के हर व्यक्ति को
मिलता नहीं है सत्य.
अर्थात अपनी पूर्णता में सत्य का साक्षात्कार
हर किसी को हो नहीं सकता
माना कि सच
हर व्यक्ति का अलग होता है
और यह सच, परस्पर मेल भी खाए
ज़रूरी नहीं
पर इससे सत्य के प्रति
आस्था में कमी क्योंकर हो !
सत्य को जिस रूप में पाया है हमने
उसी का पालन करें –
डर और पराजय के लिए
स्थान है कोई नहीं
करना पड़े यदि
मृत्यु का भी वरण सच के मार्ग में
उसे अपनाएं
जैसे राम ने, प्रहलाद ने
हसन, हुसेन औ’ हरिश्चंद्र ने
अपनाया उसे !
सत्य से बढकर नहीं कुछ भी
उसे तो बस अभ्यास की
वैराग्य की, दरकार है ||